Sunday, November 22, 2015

सच्चाई के समरांगण में


सच्चाई के समरांगण में, क्या डरना श्रीमान?
आगे आयें शिव सच बोलें, कहता राष्ट्र विधान||
आपस में अब नहीं किसी को, अलग-थलग करना है|,
संवर्धन के पथ रचने को, पहले पग धरना है||
सर्जनात्मक नहीं रोकना, क्षण भर भी अभियान|
आगे आयें शिव सच सच बोलें, कहता राष्ट्र विधान||
राजा रानी के महलों की, गायें नहीं कहानी|
लोकतान्त्रिक इस दुनिया में, सोच करें विज्ञानी|
नाटकीयता से हो सकता, नहीं रंच उत्थान|
आगे आयें शिव सच बोलें, कहता राष्ट्र विधान||
कहने को जो नेत्र खुले है, उनमें घना अँधेरा|
स्वर्ण सवेरा लाने वाले, रवि ने ही मुँह फेरा||
कर्मवीर तो याचित करते, कभी नहीं अनुदान|
आगे आयें शिव सच बोलें, कहता राष्ट्र विधान||

Wednesday, November 11, 2015

जीवन गीत


जीवन गीत सुनाता चल,
शब्द सुगंध लुटाता चल|
नफ़रत वाली गलियों में,
स्नेहल दीप जलाता चल|
जो सच को धमकाते हैं,
उनको भी अपनाता चल|
कोई भी अरि नहीं यहाँ,
सबसे हाथ मिलाता चल|
सन्त तुका जैसा तू भी,
तारा एक बजाता चल||

Tuesday, November 10, 2015

दूध पी रहे विविध सपोले



सच्चाई की कमी दिख रही, राजनीति की गलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में?
भूखे- प्यासे बेवश लाखों, विपदाओं के मारे हैं,
शिक्षा- दीक्षा के नारे तो, आसमान के तारे हैं|
गरल छिड़कने लगे दरिन्दे, वन उपवन की कलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में?
काली करतूतों को ढँकते, कितने वस्त्र निराले हैं,
जितने उज्ज्वल तन से दिखते, उतने मन के काले हैं|
अन्तर नहीं परखना चाहें, छलियों में मखमलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में?
पाले- पोषे ख़ूब जा रहे, जाति- धर्म के आतंकी,
सम्मानित हो रहे सहस्रों, अर्थ समर्थक ढोलंकी|
दूध पी रहे विविध सपोले, स्वर्ण रजत की डलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में