Monday, September 26, 2011

                    गीत वेदना
गाँव-नगर में आम आदमी, तड़प रहा उत्पीडन से|
असमंजस में फँसा रो रहा, महगाई  विज्ञापन से ||

उगती पौध व्यवस्था चरती,हिंसा का अभिवादन करती|
आततायियों के घेरों में, घिरी हुई सत्ता है डरती ||
गीत वेदना बनकर उमड़ा, स्वतः सहज संवेदन से |
असमंजस में फँसा रो रहा, महगाई  विज्ञापन से ||

कुछ सुख सुविधाओं के भोगी,पीकर मधुरस बनते रोगी|
कर्म-हीन अधिकार जताने, हेतु  बन गये ढोंगी जोगी||
न्याय-तंत्र भी विमुख दिख रहा,विलख रहे जन,गण,मन से|
असमंजस में फँसा रो रहा, महगाई  विज्ञापन से ||

चिंतन-मनन विवेक खो गया,काव्य अर्थ का दास हो गया|
सदाचार के शिक्षालय का,  शिक्षक खाकर भाँग सो गया||
सार तत्त्व अब तो यह पाया, व्यवहारिक  अनुशीलन से|
असमंजस में फँसा रो रहा, महगाई  विज्ञापन से ||  

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