लिखते-लिखते पढ़ते-पढ़ते, जीवन बीत रहा।
लोकतंत्र को समझाने में, विफल अतीत रहा।।
जिनको मिली नहीं सुविधायें,जिनकी रही न अभिलाषायें।
उनको रंच नहीं समझायीं,नागरिकों की पारिभाषायें।।
सुप्त करे जो युग प्रबोध वो, गुंजित गीत रहा।
लोकतंत्र को समझाने में, विफल अतीत रहा।।
अर्थतंत्र ने जिनको जाया, चुनकर नायक उन्हें बनाया।
शोषणवादी मकड़जाल को,जाति-धर्म ने सुदृढ़ कराया।।
न्यायालय ही न्यायतंत्र के, अति विपरीत रहा।
लोकतंत्र को समझाने में, विफल अतीत रहा।।
लूटपाट खींचातानी है, मौनी बन बैठा ज्ञानी है।
बीमारी से पीत धरा को, छली वैद्य कहता धानी है।।
आश्वासन की लेप चढ़ा के, खल जग जीत रहा।
लोकतंत्र को समझाने में, विफल अतीत रहा।।
छीन रहे जो अधिकारों को, जो ठुकराते लाचारों को।
वे सामंती चला रहे हैं, पूँजीवादी सरकारों को।।
शासक वर्ग प्रशासन से तो, खुद भयभीत रहा।
लोकतंत्र को समझाने में, विफल अतीत रहा।।
गाँव-गली में जाया जाये, तर्क विवेक बढ़ाया जाये।
बहुत हो चुकी है लफ़्फ़ाज़ी, सम्विधान समझाया जाये।।
पंचशील ही मानवता का, रक्षक मीत रहा।
लोकतंत्र को समझाने में, विफल अतीत रहा।।
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