Monday, January 23, 2012

इस युग का व्यापारी है,करता दो के पाँच रहा|
कुछ भिक्षा के गीतों को, दारू पीकर बाँच रहा||

जहाँ कहीं वह जाता है, जमकर ढोंग जमाता है|
अपने लगुओं-भगुओं से,जय जयकार कराता है|
वह पौराणिक विधियों से,नव जीवन को जाँच रहा|
कुछ भिक्षा के गीतों को, दारू पीकर बाँच रहा||

अधिनायक सरपंचों का,सदर बना कवि मंचों का|
उदहारण वह देता है, सनातनी कुछ संचों का||
गुदड़ी के लालों को वह, बरबस कहता काँच रहा|
कुछ भिक्षा के गीतों को, दारू पीकर बाँच रहा||

उसकी मीठी बोली है,करता बहुत ठिठोली है |
सेठों का अधिवक्ता वह,दिखती सूरत भोली है||
महाठगों की भाषा में,बता झूठ को साँच रहा |
कुछ भिक्षा के गीतों को, दारू पीकर बाँच रहा||

उसको शर्म नहीं आती,हरकत करता उत्पाती |
बहुत चतुर है पढ़ा-लिखा,नहीं समझना देहाती||
कल्पित कलुष विचारों की,सदा बढ़ाता आँच रहा|
कुछ भिक्षा के गीतों को, दारू पीकर बाँच रहा||

कई अनैतिक अधिकारी,निभा रहे रिश्तेदारी |
जाति संगठन में उसकी,बनी प्रतिष्ठा है भारी||
उसका पैरोकार बना, जो भी लेता लाँच रहा |
कुछ भिक्षा के गीतों को, दारू पीकर बाँच रहा||

No comments:

Post a Comment