Friday, May 11, 2012

मन की शुचिता हेतु साथियो!,अधिक बोलना ठीक नहीं|
वह कैसा स्वर जिसके उर की,दृष्टि प्रखर बारीक नहीं||

तिल भर आसान हिले न डोले,जो रक्तिम संहार से,
उनके उखड़ गये पग पल में,शब्द शक्ति की मार से|
नैतिकता का पथ बन सकता,सत्ता के नजदीक नहीं|
वह कैसा स्वर जिसके उर की,दृष्टि प्रखर बारीक नहीं||

समय नष्ट करने वालों को,किया समय ने नष्ट है,
अपने ऊपर जिसे भरोसा, वही उठाता कष्ट है |
स्वार्थी मानव का हो सकता,अभ्यंतर निर्भीक नहीं|
वह कैसा स्वर जिसके उर की,दृष्टि प्रखर बारीक नहीं||

पर दुख को जो निज दुख समझे,वह जीवन अति धन्य हैं,
जिसमें सब सबके बन जायें, वही विधा अनुमन्य है |
जिसमें बैर भावना रहती,वह पथ लगता नीक नहीं|
वह कैसा स्वर जिसके उर की,दृष्टि प्रखर बारीक नहीं||

धन के लिए वदन का सौदा,ज्यों अनीति व्यापार है,
त्योंही अर्थ प्रशस्ति काव्य के,साथ अनय व्यवहार है|
कविता चेतन शक्ति जगाती,लालच मोह प्रतीक नहीं
वह कैसा स्वर जिसके उर की,दृष्टि प्रखर बारीक नहीं||

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