Wednesday, December 12, 2012

तन की सुंदरता अच्छी है,मन भी सुन्दर कर लें|
अगर हो सके स्नेह-सिंधु में,गहरा और उतर लें||

कभी-कभी नफ़रत की वाणी, अधरों पर आ जाती,
चमक-दमक दौलत की प्रायः,नैनों पर छा जाती|
निष्पृह हो परमार्थ स्वरों से, अपने अंतर भर लें|
अगर हो सके स्नेह-सिंधु में,गहरा और उतर लें||

बनी बनायी राहें जग में,जन अक्सर अपनाते,

कवि गण तो जीवन मंजिल के, मार्ग नवीन बनाते|
जीवन के उलझे प्रश्नों का, स्वतः खोज उत्तर लें|
अगर हो सके स्नेह-सिंधु में,गहरा और उतर लें|| 

बिना प्रयोजन समय बिताना,कवि का धर्म नहीं है,
भलीभाँति यह सत्य समझ लें, सच्चा स्वर्ग यहीं है | 
अपने सुख की करें न चिंता,औरों के दुख हर लें |
अगर हो सके स्नेह-सिंधु में,गहरा और उतर लें||

यहाँ दूसरों के हित जिसने, मर मिटना जाना है,
उसको युग ने मुक्त भाव से, संतों- सा माना है|
उपेक्षितों की गलियों में भी,थोड़ा-बहुत विचर लें|
अगर हो सके स्नेह-सिंधु में,गहरा और उतर लें||

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