किसके साथ खड़े हो जायें,
अब तक नहीं समझ में आया|
यहाँ जातियाँ बोल रहीं हैं,
नफ़रत के दर खोल रहीं हैं,
जनता को बस वोट समझ के-
अब तो लगवा मोल रहीं हैं|
बजा रहे वे किसका उनको,
ढोलक नहीं समझ में आया|
डम डम डम डुग्गी पिटवायी,
इधर- उधर से भीड़ जुटायी,
क्या करना है नहीं बताया-
विरिधियों की करी बुरायी|
राजनीत का दाँव-पेंच तो,
बेशक नहीं समझ में आया|
दिन में दिखा रहे हैं तारे,
लगवा रहे विषैले नारे,
वातावरण प्रदूषित सारा-
हुआ समझिये इनके मारे|
असमंजस से भरे शोर में,
वंचक नहीं समझ में आया|
किसको लोकतंत्र को मारा?
किसने किया सघन अंधियारा?
किसने जन गण मन के मुँह का-
धन से स्वाद कर दिया खारा?
बहुत किया विश्लेषण फिरभी-
सर्ज़क नहीं समझ में आया|
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