अदब के शहर में
ग़ज़ब ही ग़ज़ब है|
कहीं रक्त के पान
की अब तलब है|
गई शाम जो कल सलामत
सिखा के,
उसी की सुबह का
नज़ारा अजब है|
हमारे घरों का अमन
लूटने को,
कदाचारियों ने लगाई
नकब है|
इधर से उधर जो बहाया
गया वो ,
लहू है किसी का
न समझो कलब है|
अगर रक्त ही रक्त
को पी रहा तो,
जरा सोचिये कौन
इसका सबब है?
उसे तो किसी रूप
में देखना क्या ,
रहा जो सदा से स्वतः
ही सरब है|
पराया समझता तुका
जो किसी को,
समझ लो नहीं मजहबी वो हसब है|
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