Thursday, November 4, 2010

savaiya

किस भाति जगे जन चेतनता इस हेतु विचार उभर सकूँ 
        उपलब्ध न भोजन बस्त्र जिन्हें उनकी विपदा परिहार सकूँ
          कवि हूँ कविता बल से युग की छवि को कुछ और सुधार सकूँ
          घर गाँव प्रदेश न मात्र स्वदेश सखी जग रूप सवांर सकूँ


         अभिलाष अपूर्ण अभी अपना जग बीच न स्नेह बिखेर सका
         नव ज्योति जिन्हें न मिली उनके हित ज्योतित मार्ग न हेर सका
         धरती पर पीड़ित मानव के सिर ऊपर हाथ न  फेर सका
         युगबोध शिला पर जीवन की जन चेतनता न उकेर सका

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