Sunday, October 31, 2010

यदि रौशनी नहीं है...

यदि रौशनी  नहीं है तो जिन्दगी नहीं है 
जो मंच कह रहा है वो शायरी नहीं है 

बातें बड़ी बड़ी हैं पर चौकसी नहीं है
आतंक जो मिटाए वो सोच ही नहीं है 

ये दुनिया पढ़ी लिखी है अनुभव सदा कहेगी 
होती किताब कोई भी आखिरी नहीं है 

वो अर्थ का पुजारी परमार्थ का विरोधी 
उसका स्वतंत्र चिंतन मन पारखी नहीं है 

यदि चाहते की फूले फलती रहे किसानी 
तो फिर सुधारवादी गति रोकनी नहीं है 

कवि का उसे मिलेगा क्यों मर्तबा जहाँ में 
जो लेखनी असत सत  पहचानती नहीं है

साहित्य का पुरोधा होता नहीं तुका वो 
जिसके स्वाभाव में कुछ दीवानगी नहीं है

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