कर्त्तव्यों की बोझिल गठरी लादे घूम रहे,
आज अनोखेलाल गगन के तारे चूम रहे|
लोक व्यवस्था दोनों हाथों देती मान उन्हें,
जो सत्ता की हिस्सेदारी से महरूम रहे|
अध्यापन की गरिमा शोभा देती उन्हें नहीं,
ज्ञान दान करने में भी जो बेहद सूम रहे|
संविधान ने जीवन यापन का अधिकार दिया,
पर किसकी हैं क्या सीमायें यह मालूम रहे|
खींचातानी अफरातफरी होगी क्यों न वहाँ,
भूख-प्यास से व्याकुल रोता जहाँ हुजूम रहे|
हो सकता संभव सामाजिक तब सदभाव 'तुका',
जब नफ़रत फैलाने वाला रंच न धूम रहे|
आज अनोखेलाल गगन के तारे चूम रहे|
लोक व्यवस्था दोनों हाथों देती मान उन्हें,
जो सत्ता की हिस्सेदारी से महरूम रहे|
अध्यापन की गरिमा शोभा देती उन्हें नहीं,
ज्ञान दान करने में भी जो बेहद सूम रहे|
संविधान ने जीवन यापन का अधिकार दिया,
पर किसकी हैं क्या सीमायें यह मालूम रहे|
खींचातानी अफरातफरी होगी क्यों न वहाँ,
भूख-प्यास से व्याकुल रोता जहाँ हुजूम रहे|
हो सकता संभव सामाजिक तब सदभाव 'तुका',
जब नफ़रत फैलाने वाला रंच न धूम रहे|
No comments:
Post a Comment