Tuesday, November 29, 2011

जन-मन को महकाते हो

एक वार समझाओ प्रिय! क्यों, इतना कष्ट उठाते हो?
गल-पिस कर बन गये इत्र तुम, जन-मन को महकाते हो||

किंचित भेद नहीं माना है, तुमने पर्वत घाटी में |
यह भी सच है हुए अंकुरित, सड़कर के शुचि माटी में|| 
जाड़ा गर्मी बरसातों को, सहतो हो मुस्काते हो|
गल-पिस कर बन गये इत्र तुम, जन-मन को महकाते हो||

पले-बढ़े हो नित शूलों में,लेकिन नहीं गिला कोई |
सबको मकरंदी सुगंध दी, अपनी सुध-बुध भी खोई||
घर से बेघर किया जिन्होंने, उनको भी अपनाते हो |
गल-पिस कर बन गये इत्र तुम, जन-मन को महकाते हो||

कवियों ने अपने अनुभव से,तुमको सुमन बताया है|
लेकिन उन सबने अपने को, तुम-सा नहीं सजाया है||
सुमन समान बनो फिर महको, शायद यही सिखाते हो|
गल-पिस कर बन गये इत्र तुम, जन-मन को महकाते हो||

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