Friday, September 9, 2016

एक व्यथित गीत

--- ----:एक व्यथित गीत:--------
विलख रहे हैं विकल गरीबे, बेबस है क़ानून।
नहीं दो मुट्ठी भर है चून।।
नहीं दो मुट्ठी भर है चून।।।
सत्ता की नारेबाज़ी ने, घोल दिया है विष पाजी ने।
दाढ़ी- चोटी करें लड़ाई, नफ़रत फैलाई क़ाज़ी ने।।
वोट बटोरू संघठनों ने, किया न्याय का ख़ून।
नहीं दो मुट्ठी भर है चून।।
नहीं दो मुट्ठी भर है चून।।।
बढ़ी मिलावटखोरी ऐसी,सच की कर दी ऐसी तैसी। 
वासी भोजन ने समाज की,सूरत कर दी रोगी जैसी।
महँगाई के गर्म तेल ने, इंसा डाले भून।
नहीं दो मुट्ठी भर है चून।।
नहीं दो मुट्ठी भर है चून।।।
खेत- बाग़ वीरान हो गये, संरक्षक शैतान हो गये।
जिन्हें जगाना प्रेमभाव था, वही लोग हैवान हो गये।
कलियों की पाँखुरी नौच लीं, रौंदे गये प्रसून।
नहीं दो मुट्ठी भर है चून।।
नहीं दो मुट्ठी भर है चून।।।

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