Tuesday, February 14, 2012

असरदार इतनी इबादत तुम्हारी|
तुम्हें मिल गई है विरासत तुम्हारी||

परख ली समझ ली शराफ़त तुम्हारी,
जहाँ को विदित है करामत तुम्हारी|
...
किया जाएगा नाम बदनाम वो भी,
अजी जो करेगा रफ़ाक़त तुम्हारी|

बताना नहीं चाहता हूँ किसी को,
हुई किसलिए हैं हिफ़ाज़त तुम्हारी|

दबे बोझ से जो यहाँ लोग उनको,
नहीं न्याय देती अदालत तुम्हारी|

बदल जाएगा रंग माहौल पल में,
अगर मैं सुना दूँ हमाक़त तुम्हारी|

सरस लोकशाही यहाँ आ चुकी है,
रही यह नहीं अब रियासत तुम्हारी|

नहीं डींग मारो कभी इस तरह से,
तुका से छिपी क्या हकीकत तुम्हारी?

Saturday, February 11, 2012


विदित नहीं  जिनको जीवन की,संवर्धक तस्वीर|
उन्हीं को  जकड़े  धन जंजीर||
उन्हीं को जकड़े  धन जंजीर|||
 
 
अर्थ व्यर्थ है नहीं बंधुओं,मगर न वह मानव का स्वामी|
सर्जनात्मक शक्ति उसी में,जो है सदाचरण अनुगामी ||
खींच रहे जो भेदभाव की ,कलुषित कपट लकीर |
उन्हीं को जकड़े  धन जंजीर||
उन्हीं को जकड़े  धन जंजीर|||
 
जिनकी दुनिया रंग रँगीली,वे क्या जाने प्रेम फकीरी|
सुविधाभोगी समुदायों को, बहुत सुहाती दादागीरी||
मज़लूमों को रहे समझते, जो अपनी जागीर|
उन्हीं को जकड़े  धन जंजीर||
उन्हीं को जकड़े  धन जंजीर|||
 
जिनकी राहें लंबी-चौड़ी, वे सकरी गलियाँ क्या जानें?
खुद को सभ्य समझने वाले,समझदार को क्यों पहचानें?
लूट-पाट करके जो खाते, मुर्ग-मुसल्लम खीर|
उन्हीं को जकड़े  धन जंजीर||
उन्हीं को जकड़े धन जंजीर|||
 

Friday, February 10, 2012


किसके साथ खड़े हो जायें,
अब तक नहीं समझ में आया|
 
यहाँ जातियाँ बोल रहीं हैं,
नफ़रत के दर खोल रहीं हैं,
जनता को बस वोट समझ के-
अब तो लगवा मोल रहीं हैं|
बजा रहे वे किसका उनको,
ढोलक नहीं समझ में आया|
 
डम डम डम डुग्गी पिटवायी,
इधर- उधर से भीड़ जुटायी,
क्या करना है नहीं बताया-
विरिधियों की करी बुरायी|
राजनीत का दाँव-पेंच तो,
बेशक नहीं समझ में आया|
 
दिन में दिखा रहे हैं तारे,
लगवा  रहे विषैले  नारे,
वातावरण प्रदूषित सारा-
हुआ समझिये इनके मारे|
असमंजस से भरे शोर में,
वंचक नहीं समझ में आया|
 
किसको लोकतंत्र को मारा?
किसने किया सघन अंधियारा?  
किसने जन गण मन के मुँह का-
धन से स्वाद कर दिया खारा?
बहुत किया विश्लेषण फिरभी-
सर्ज़क नहीं समझ में आया|
 
सोचता हूँ एक दिन संसार में,
ज़िन्दगी के सत्य को सब जान ही लेंगे|

आज हावी अर्थ की है कामना,
स्वार्थ ने सीखी सिखायी याचना,
हाथ में व्यापारियों के शक्ति है-
इसलिए ओझिल हुई सद्भावना|
शब्द सरि से न्याय की धारा बहे-
तो अनय के शमन हित रण ठान ही लेंगे|

साधना के मार्ग को जिसने चुना,
क्या उचित अनुचित सदा उसने गुना,
द्वेष की धारा रुकी रोके नहीं--
स्नेह सिंचित श्लोक तो सबने सुना|
मानवीयत को परखने के लिए-
है कसौटी आचरण सब मान ही लेंगे|

कौन-सी सर्वोदयी है सभ्यता,
भव्यता क्यों चाहती है नव्यता,
आप जो अपने बने आदर्श हैं-
लोग कहते उस चलन को सत्यता|
ज्ञान का दिनमान जो होगा उसे-
विश्व के इंसान खुद पहचान ही लेंगे|

Monday, February 6, 2012

जाति सूचक नाम का ठप्पा लगाये हैं,
और कहते घूमते अब जातियां तोड़ो|

इन छली बहुरूपियों से बात क्या करना?
इनकी बनायी राह ऊपर पैर क्या धरना?
वे अँधेरी खोलियों का दर्द क्या जानें-
लक्ष्य जिनका स्वार्थ की बस झोलियाँ भरना|
नफरतों की आग बरसाते सदा रहते,
और कहते हैं ह्रदय से अब ह्रदय जोड़ो|

ये हमारे वे तुम्हारे मानते आये,
श्रम समर्पित आदमी उनको कहाँ भाये?
चैन की दो रोटियों के जब बने रस्ते -
तब ठगों ने मजहबी संघर्ष करवाये|
रात-दिन पर स्वत्व ऊपर डालते डांका,
और कहते लूट की अब धार को मोड़ो|

सोच में संकीर्णता व्यवहार अन्यायी,
आचरण को शील शुचिता छू नहीं पायी,
वेशभूषा साधुओं-सी स्वच्छ पर उर में,
जो हटाने से न हटती कालिमा छायी|
गाँव-नगरों की गली में रूढ़ि के नारे-
और कहते भूत की बातें सभी छोड़ो|

Saturday, February 4, 2012

मुस्कराने से हमेशा रक्त बढ़ता मानिये|
अस्थियाँ मजबूत होती मांस चढ़ता मानिये||

आदमी अभ्यास करता जो सजग रहकर सदा,
वह सफलता के शिखर की ओर बढ़ता मानिये|
स्वार्थ विरहित जो रहे परमार्थ में तल्लीन वो,
विश्व के उत्थान के नव मूल्य गढ़ता मानिये|

आत्मबल पर जो भरोसा रख सके हर हाल में,
वो समय के सिंधु के उस पार कढ़ता मानिये|

राज्य से चाहत रखे भयग्रस्त जीवन जो जिये,
दोष अपने वो पराये शीश मढ़ता मानिये |

जिस ह्रदय को हो नहीं इच्छा अनैतिक लाभ की,
वो 'तुका ' इंसान प्रेमी गीत पढ़ता मानिये |

Friday, February 3, 2012

नफरत भरे अधर को, हर बार प्यार दूँगा|
कवि कर्म के सहारे, जग को सँवार दूँगा||
मन में यहीं इरादा, कवि ने संजों लिया हैं,
मझधार फँस गये जो, उनको उबार दूँगा|
दिन-रात साधना में, इस ख्याल से लगा हूँ,
जो क़र्ज़ भूमि का है, कुछ तो उतार दूँगा|
यह घोषणा नहीं प्रिय!,तहरीर ज़िन्दगी की,
अनुभूति से मिले जो, वे ही विचार दूँगा|
चुपचाप ज़िन्दगी भर दुख झेलते रहे जो,
उनकी समग्र पीड़ा निश्चय उभार दूँगा||
कविता ‘तुका’ किसी की करती न चापलूसी,
इस ख्याल से स्वदेशी छवि को निखार दूँगा|