Wednesday, February 27, 2013



झूमने का कुछ मजा है,
घूमने का और|
चैन लेने के लिए है,
अब कहाँ पर ठौर?

सुमनों लताओं में नहीं सद्गंध है,
ताज़ी हवाओं पर लगा प्रतिबन्ध है,
पूछती हैं घाटियां मैदान पर्वत-
कितना हमारा आपका सम्बन्ध है|
कह रही पगडंडियाँ है,
राजपथ का दौर|
चैन लेने के लिए है,
अब कहाँ पर ठौर?

खिलती हुई सरसों न दिखती खेत में,
कुछ भी चहलक़दमी न सरि की रेत में,
अब तो किनारे पर तपस्वी हैं नहीं-
अंतर किया जाता न श्यामल श्वेत में|
आम वृक्षों में न आते,
वक्त पर भी बौर|
चैन लेने के लिए है,
अब कहाँ पर ठौर?

चुपचाप कौने में विलखती साधना,
शुचि प्रार्थना ऊपर प्रभावी याचना,
ठग के करों में शक्ति संचित हो गयी-
दुर्भावना को पूजती सद्भावना|
भूख के मुँह से छिनाया,
जा रहा है कौर|
चैन लेने के लिए है,
अब कहाँ पर ठौर?7

Monday, February 25, 2013



भौतिक वैभव को क्या देखे, अब यहाँ सहस्रों ताज बने|
कल जिन्हें पूजती सत्ता थी, वे आज विरोध रवाज बने||

जो चलते थे बनके अगुवा, उनमें से कुछ निकले ठगुवा,
जनता के मौलिक स्वत्वों को, हथियाते हैं लगुवा-भगुवा|
जन जीवन बेहद व्याकुल है, कोई न्यायिक आवाज़ बने|
कल जिन्हें पूजती सत्ता थी, वे आज विरोध रवाज बने|| 

अफरा- तफरी है शासन में, सद्साहस नहीं प्रशासन में,
दिखता है किसी क्षेत्र में भी, विश्वास नहीं अनुशासन में|
टुकड़ों के भी टुकड़े-टुकड़े, अब कैसे एक समाज बने ?
कल जिन्हें पूजती सत्ता थी, वे आज विरोध रवाज बने||

खतरे में मानव प्यारा है, बस जातिवाद का नारा है,
विष क्षेत्रवाद का ऊपर से, छलियों ने यहाँ उभारा है| 
पिंजरों में बंद परिंदों का, अब कैसे एक मिज़ाज बने?
कल जिन्हें पूजती सत्ता थी, वे आज विरोध रवाज बने||

Tuesday, February 19, 2013

कवि ने लखे-पढ़े पहचाने,दैनंदन व्यवहार|
बताये मानवीय अधिकार||
बताये मानवीय अधिकार|||

मानव है वह जो मानव की, पीड़ाओं को समझे,
प्रगति विरोधी जंजालों के, फन्दों बीच न उलझे|
सुलझाये कुछ जटिल प्रश्न भी,करके तर्क विचार|
बताये मानवीय अधिकार||
बताये मानवीय अधिकार|||

सरि-सा बहना,तरु-सा फलना, रवि-सा तम को हरना,
वह गुणवान परम ज्ञानी जो, परहित जाने मरना |
भेदभाव को तजे करे जो, सबको अंगीकार|
बताये मानवीय अधिकार||
बताये मानवीय अधिकार|||

सकल सृष्टि के लिए शब्द का, अर्थ अर्थमय कहना,
हो न अनधिकृत हेतु लालसा, विलग मोह से रहना|
परिपालन जो करे आप ही,सदाशयी सहकार|
बताये मानवीय अधिकार||
बताये मानवीय अधिकार|||

Saturday, February 16, 2013

एक विचारणीय गीत:-

बातें लच्छेदार तुम्हारी, बातें लच्छेदार|
भूखे-प्यासे लोग खड़े हैं, स्वागत को तैयार||

भूल समग्र उसूल गये हो, ज्ञानी के प्रतिकूल गये हो,
हरे-भरे बागीचों में भी, बोते शूल बबूल गये हो| 
भाषण देकर चला रहे हो, अन्यायी सरकार
भूखे-प्यासे लोग खड़े हैं, स्वागत को तैयार||

दो दिलवा के बीस बनाये, गाँव-गरीब किसान जलाये,
भेद-भाव के व्यवहारों से, बढ़े फाँसले और बढ़ाये| 
धनपशुओं को दिया दान में, शोषण का अधिकार|
भूखे-प्यासे लोग खड़े हैं, स्वागत को तैयार||

कितना कहाँ जमा करवाया, पता नहीं कोई कर पाया,
न्याय-तंत्र के अधिकारों का, सड़कों पर उपहास उड़ाया|
मोटे-ताजे चमकीले हो, पर लगते बीमार|
भूखे-प्यासे लोग खड़े हैं, स्वागत को तैयार|

अत्याचारी आगे-आगे, उलझा दिये शील के धागे,
सत्ता की दादागीरी से, भयाक्रांत हो साथी भागे|
सज्जनता का किया रौब से, क्रूरों ने प्रतिकार||
भूखे-प्यासे लोग खड़े हैं, स्वागत को तैयार||

Thursday, February 14, 2013



बहुत हो चुकी है मनमानी, सावधान हो जाओ|
नागरिकों से किया गया जो,वो अनुबंध निभाओ||

मिथ्याचार तुम्हारा तुमको, घुन बनकर खा जायेगा,
टिक न सकेगा कदाचार वो, जो सच से टकरायेगा|
न्यायोचित उदघोष यही है, नैतिकता अपनाओ|
नागरिकों से किया गया जो,वो अनुबंध निभाओ||

क्षुद्र विसंगतियाँ समाज में, भुजबलियों ने फैलायी,
कमजोरों की चार रोटियाँ, धनपशुओं ने छिनवायी |
खींचतान की छिड़ी जंग है,शान्ति सलिल बरसाओ|
नागरिकों से किया गया जो,वो अनुबंध निभाओ||

कवियों का सद्धर्म प्रथम है, सामाजिक पीड़ा गाना,
अगर न अन्यायी माने तो, सत्याग्रह पर डट जाना|
संविधान के पहरेदारों, लोक ध्वजा फहराओ|
नागरिकों से किया गया जो,वो अनुबंध निभाओ||

भूख मिटेगी प्यास बुझेगी, सिर ढँकने को छत होगी,
सबको सुलभ रहेगी शिक्षा, सभी स्वस्थ्य होंगे रोगी|
अब अपने इस नारे को तो, साकारित करवाओ|
नागरिकों से किया गया जो,वो अनुबंध निभाओ||

Tuesday, February 12, 2013

अंकुर फूट रहे नफ़रत के, गाँव- शहर वीराने में|
चैन चाहिये चलो साथियों, प्रेम भरे मयखाने में||

यहाँ सभी सबको दुत्कारें, वहाँ सभी को सभी दुलारें,
अनजानों को स्नेह भाव से, भैया- भैया कहें पुकारें|
मधुपायी को देर न लगती, रिपुओं को अपनाने में| 
चैन चाहिये चलो साथियों, प्रेम भरे मयखाने में||

यहाँ चैन की साँस न आये, वहाँ ह्रदय आनंद मनाये,
चार पलों का दृश्य सुहाना, इन आँखों से निकल न पाये|
अपनापन ज्यों वहाँ मिले त्यों, मिले न और ठिकानों में|
चैन चाहिये चलो साथियों, प्रेम भरे मयखाने में||

वहाँ सभी मिल खाते- पीते, एक दूसरे के हित जीते,
भेद भाव से दूर सर्वथा, सबका समय स्नेह से बीते|
मधुर पान की ममता छलके, प्यालों के टकराने में|
चैन चाहिये चलो साथियों, प्रेम भरे मयखाने में||

वहाँ कहें वे और लीजिये, पियो मौज से मौज कीजिये,
मुझे देखकर कहा एक ने, तुकाराम दो घूँट पीजिये|
गरल नहीं यह अमियपान है, क्या रक्खा शर्माने में?
चैन चाहिये चलो साथियों, प्रेम भरे मयखाने में||

Thursday, February 7, 2013

हमने देखी बड़े-बड़ों के,उर की वह तस्वीर|
न जिसमें परहित किंचित पीर|| 
न जिसमें परहित किंचित पीर|||

कई मील से जिन भवनों की, सूरत दिखे चमकती|
उनके अंदर मानवता की, चाह न अल्प झलकती||
अपने और परायेपन की, वे तो बने नजीर| 
न जिसमें परहित किंचित पीर|| 
न जिसमें परहित किंचित पीर|||

जितना भारत का आँगन है, प्रिय उदार मधुमासी|
उतना इसके निवासियों का, जीवन भोग विलासी||
अनाचार ने अर्जित की है,वह कुत्सित जागीर| 
न जिसमें परहित किंचित पीर|| 
न जिसमें परहित किंचित पीर||| 

लोकतंत्रीय जीवन पद्धिति, इनको नहीं सुहाती|
संविधान के परिपालन में, इनकी फटती छाती||
कदाचार ने पहनाया है, ऐसा ठगुआ चीर|
न जिसमें परहित किंचित पीर||
न जिसमें परहित किंचित पीर|||