Thursday, February 7, 2013

हमने देखी बड़े-बड़ों के,उर की वह तस्वीर|
न जिसमें परहित किंचित पीर|| 
न जिसमें परहित किंचित पीर|||

कई मील से जिन भवनों की, सूरत दिखे चमकती|
उनके अंदर मानवता की, चाह न अल्प झलकती||
अपने और परायेपन की, वे तो बने नजीर| 
न जिसमें परहित किंचित पीर|| 
न जिसमें परहित किंचित पीर|||

जितना भारत का आँगन है, प्रिय उदार मधुमासी|
उतना इसके निवासियों का, जीवन भोग विलासी||
अनाचार ने अर्जित की है,वह कुत्सित जागीर| 
न जिसमें परहित किंचित पीर|| 
न जिसमें परहित किंचित पीर||| 

लोकतंत्रीय जीवन पद्धिति, इनको नहीं सुहाती|
संविधान के परिपालन में, इनकी फटती छाती||
कदाचार ने पहनाया है, ऐसा ठगुआ चीर|
न जिसमें परहित किंचित पीर||
न जिसमें परहित किंचित पीर|||

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