Monday, February 25, 2013



भौतिक वैभव को क्या देखे, अब यहाँ सहस्रों ताज बने|
कल जिन्हें पूजती सत्ता थी, वे आज विरोध रवाज बने||

जो चलते थे बनके अगुवा, उनमें से कुछ निकले ठगुवा,
जनता के मौलिक स्वत्वों को, हथियाते हैं लगुवा-भगुवा|
जन जीवन बेहद व्याकुल है, कोई न्यायिक आवाज़ बने|
कल जिन्हें पूजती सत्ता थी, वे आज विरोध रवाज बने|| 

अफरा- तफरी है शासन में, सद्साहस नहीं प्रशासन में,
दिखता है किसी क्षेत्र में भी, विश्वास नहीं अनुशासन में|
टुकड़ों के भी टुकड़े-टुकड़े, अब कैसे एक समाज बने ?
कल जिन्हें पूजती सत्ता थी, वे आज विरोध रवाज बने||

खतरे में मानव प्यारा है, बस जातिवाद का नारा है,
विष क्षेत्रवाद का ऊपर से, छलियों ने यहाँ उभारा है| 
पिंजरों में बंद परिंदों का, अब कैसे एक मिज़ाज बने?
कल जिन्हें पूजती सत्ता थी, वे आज विरोध रवाज बने||

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