Tuesday, February 12, 2013

अंकुर फूट रहे नफ़रत के, गाँव- शहर वीराने में|
चैन चाहिये चलो साथियों, प्रेम भरे मयखाने में||

यहाँ सभी सबको दुत्कारें, वहाँ सभी को सभी दुलारें,
अनजानों को स्नेह भाव से, भैया- भैया कहें पुकारें|
मधुपायी को देर न लगती, रिपुओं को अपनाने में| 
चैन चाहिये चलो साथियों, प्रेम भरे मयखाने में||

यहाँ चैन की साँस न आये, वहाँ ह्रदय आनंद मनाये,
चार पलों का दृश्य सुहाना, इन आँखों से निकल न पाये|
अपनापन ज्यों वहाँ मिले त्यों, मिले न और ठिकानों में|
चैन चाहिये चलो साथियों, प्रेम भरे मयखाने में||

वहाँ सभी मिल खाते- पीते, एक दूसरे के हित जीते,
भेद भाव से दूर सर्वथा, सबका समय स्नेह से बीते|
मधुर पान की ममता छलके, प्यालों के टकराने में|
चैन चाहिये चलो साथियों, प्रेम भरे मयखाने में||

वहाँ कहें वे और लीजिये, पियो मौज से मौज कीजिये,
मुझे देखकर कहा एक ने, तुकाराम दो घूँट पीजिये|
गरल नहीं यह अमियपान है, क्या रक्खा शर्माने में?
चैन चाहिये चलो साथियों, प्रेम भरे मयखाने में||

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