Tuesday, April 5, 2011

उपहास जो करें

मन धो  नहीं  सके  वदन बुहारते रहे , 
नफ़रत  भरी  विभावना  उभारते रहे |

पढ़कर  अनेक पुस्तकें महान  जो बने , 
हर भांति  वो  तमिस्र को  दुलारते रहे |

धन लूटकर अपार गेह  बैंक भर लिया ,
पर  और  और  और   हो  पुकारते रहे |

जिनको कहा गया गंवार  आदमी वही,
श्रमशक्ति  से  जहान को संवारते रहे |

मझधार जो फंसे अनीति  के समुद्र में ,
उस  पार  संत  ही  उन्हें   उतारते  रहे |

उपहास  जो करें तुका उनको  बताइये, 
कविवृन्द विश्व रूप  को निखारते रहे |





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