मन धो नहीं सके वदन बुहारते रहे ,
नफ़रत भरी विभावना उभारते रहे |
पढ़कर अनेक पुस्तकें महान जो बने ,
हर भांति वो तमिस्र को दुलारते रहे |
धन लूटकर अपार गेह बैंक भर लिया ,
पर और और और हो पुकारते रहे |
जिनको कहा गया गंवार आदमी वही,
श्रमशक्ति से जहान को संवारते रहे |
मझधार जो फंसे अनीति के समुद्र में ,
उस पार संत ही उन्हें उतारते रहे |
उपहास जो करें तुका उनको बताइये,
कविवृन्द विश्व रूप को निखारते रहे |
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