Friday, April 20, 2012

विलख-विलख कर पत्ता-पत्ता,माँग रहा पानी|
जेठ मास के तीव्र ताप से,व्याकुल हर प्राणी||

टप-टप गिरे पसीना तन से,मिले न शीतलता चन्दन से,
मूर्क्षित-सी दिखती हरियाली,आतप के तांडव नर्तन से |
झुलस गये हैं वन-उपवन भी,लुप्त रंग धानी|
जेठ मास के तीव्र ताप से,व्याकुल हर प्राणी||

मिलता नहीं चैन आँगन में,जलन-तपन बढ़ रही वदन में,
मन करता है चलें शीघ्र ही,काश्मीर,शिमला कानन में |
मानो अंगारों की वर्षा,करे ग्रीष्म रानी|
जेठ मास के तीव्र ताप से,व्याकुल हर प्राणी||

सुबह-शाम कुछ दिखते शहरी,जलती-सी दिखती दोपहरी,
गाँवों की वस्ती यूँ लगती ,ज्यों हो गई आजकल बहरी|
कवि के सिवा न समझे कोई,रवि की शैतानी|
जेठ मास के तीव्र ताप से,व्याकुल हर प्राणी||

बाल वृद्ध सब भरें सिसकियाँ,मौन पड़े हैं युवक-युवतियाँ,
सुबह-सुबह से बरछी जैसी,चुभें वदन में रक्त रश्मियाँ |
सबकी सूरत यूँ दखती ज्यूँ ,बिल्ली खिसियानी|
जेठ मास के तीव्र ताप से,व्याकुल हर प्राणी||

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